48. शूकदोषनिदानम्
शूकदोषनिदानम्
अथ शूकदोषनिदानम् |
अक्रमाच्छेफसो वृद्धिं योऽभिवाञ्छति मूढधीः |
व्याधयस्तस्य जायन्ते दश चाष्टौ च शूकजाः ||१||
सर्षपिकालक्षणम्
गौरसर्षपसंस्थाना शूकदुर्भुग्नहेतुका |
पिडका श्लेष्मवाताभ्यां ज्ञेया सर्षपिका तु सा ||२||
(सु. नि. अ. १४) |
अष्ठीलिकालक्षणम्
कठिना विषमैर्भुग्नैर्वायुनाऽष्ठीलिका भवेत् |३|
(सु. नि. अ. १४) |
ग्रथितलक्षणम्
शूकैर्यत् पूरितं शश्वद्ग्रथितं नाम तत् कफात् ||३||
कुम्भिकालक्षणम्
कुम्भिका रक्तपित्तोत्था जाम्बवास्थिनिभाऽशुभा |४|
(सु. नि. अ. १४) |
अलजीलक्षणम्
तुल्यजां त्वलजीं विद्याद्यथाप्रोक्तां विचक्षणः ||४||
(सु. नि. अ. १४) |
मृदितलक्षणम्
मृदितं पीडितं यच्च संरब्धं वातकोपतः |५|
(सु. नि. अ. १४) |
सम्मूढपिडकालक्षणम्
पाणिभ्यां भृशसम्मूढे सम्मूढपिडका भवेत् ||५||
(सु. नि. अ. १४) |
अधिमन्थलक्षणम्
दीर्घा बह्व्यश्च पिडका दीर्यन्ते मध्यतस्तु याः |
सोऽधिमन्थः कफासृग्भ्यां वेदनारोमहर्षकृत् ||६||
(सु. नि. अ. १४) |
पुष्करिकालक्षणम्
पिडका पिडकाव्याप्ता पित्तशोणितसम्भवा |
पद्मकर्णिकसंस्थाना ज्ञेया पुष्करिका तु सा ||७||
(सु. नि. अ. १४) |
स्पर्शहानिलक्षणम्
स्पर्शहानिं तु जनयेच्छोणितं शूकदूषितम् |८|
(सु. नि. अ. १४) |
उत्तमालक्षणम्
मुद्गमाषोपमा रक्ता रक्तपित्तोद्भवा तु या ||८||
व्याधिरेषोत्तमा नाम शूकाजीर्णनिमित्तजा |
(सु. नि. अ. १४) |
शतपोनकलक्षणम्
छिद्रैरणुमुखैर्लिङ्गं चितं यस्य समन्ततः ||९||
वातशोणितजो व्याधिः स ज्ञेयः शतपोनकः |
(सु. नि. १४) ||११||
त्वक्पाकलक्षणम्
वातपित्तकृतो ज्ञेयस्त्वक्पाको ज्वरदाहकृत् ||१०||
(सु. नि. अ. १४) |
शोणितार्बुदलक्षणम्
कृष्णैः स्फोटैः सरक्ताभिः पिडकाभिर्निपीडितम् |
यस्य वास्तुरुजश्चोग्रा ज्ञेयं तच्छोणितार्बुदम् ||११||
(सु. नि. अ. १४) |
मांसार्बुदलक्षणम्
मांसदोषेण जानीयादर्बुदं मांससम्भवम् |१२|
(सु. नि. अ. १४) |
मांसपाकलक्षणम्
शीर्यन्ते यस्य मांसानि यस्य सर्वाश्च वेदनाः ||१२||
विद्यात्तं मांसपाकं तु सर्वदोषकृतं भिषक् |
(सु. नि. अ. १४) |
विद्रधिलक्षणम्
विद्रधिं सन्निपातेन यथोक्तमिति निर्दिशेत् ||१३||
(सु. नि. अ. १४) |
तिलकालकलक्षणम्
कृष्णानि चित्राण्यथवा शूकानि सविषाणि वा |
पातितानि पचन्त्याशु मेढ्रं निरवशेषतः ||१४||
कालानि भूत्वा मांसानि शीर्यन्ते यस्य देहिनः |
सन्निपातसमुत्थांस्तु तान् विद्यात्तिलकालकान् ||१५||
(सु. नि. अ. १४) |
शूकदोषाणां साध्यासाध्यविचारः
तत्र मांसार्बुदं यच्च मांसपाकश्च यः स्मृतः |
विद्रधिश्च न सिद्ध्यन्ति ये च स्युस्तिलकालकाः ||१६||
(सु. नि. अ. १४) |
पुष्पिका
इति श्रीमाधवकरविरचिते माधवनिदाने शूकदोषनिदानं समाप्तम् ||४८||
अथ शूकदोषनिदानम् |
अक्रमाच्छेफसो वृद्धिं योऽभिवाञ्छति मूढधीः |
व्याधयस्तस्य जायन्ते दश चाष्टौ च शूकजाः ||१||
सर्षपिकालक्षणम्
गौरसर्षपसंस्थाना शूकदुर्भुग्नहेतुका |
पिडका श्लेष्मवाताभ्यां ज्ञेया सर्षपिका तु सा ||२||
(सु. नि. अ. १४) |
अष्ठीलिकालक्षणम्
कठिना विषमैर्भुग्नैर्वायुनाऽष्ठीलिका भवेत् |३|
(सु. नि. अ. १४) |
ग्रथितलक्षणम्
शूकैर्यत् पूरितं शश्वद्ग्रथितं नाम तत् कफात् ||३||
कुम्भिकालक्षणम्
कुम्भिका रक्तपित्तोत्था जाम्बवास्थिनिभाऽशुभा |४|
(सु. नि. अ. १४) |
अलजीलक्षणम्
तुल्यजां त्वलजीं विद्याद्यथाप्रोक्तां विचक्षणः ||४||
(सु. नि. अ. १४) |
मृदितलक्षणम्
मृदितं पीडितं यच्च संरब्धं वातकोपतः |५|
(सु. नि. अ. १४) |
सम्मूढपिडकालक्षणम्
पाणिभ्यां भृशसम्मूढे सम्मूढपिडका भवेत् ||५||
(सु. नि. अ. १४) |
अधिमन्थलक्षणम्
दीर्घा बह्व्यश्च पिडका दीर्यन्ते मध्यतस्तु याः |
सोऽधिमन्थः कफासृग्भ्यां वेदनारोमहर्षकृत् ||६||
(सु. नि. अ. १४) |
पुष्करिकालक्षणम्
पिडका पिडकाव्याप्ता पित्तशोणितसम्भवा |
पद्मकर्णिकसंस्थाना ज्ञेया पुष्करिका तु सा ||७||
(सु. नि. अ. १४) |
स्पर्शहानिलक्षणम्
स्पर्शहानिं तु जनयेच्छोणितं शूकदूषितम् |८|
(सु. नि. अ. १४) |
उत्तमालक्षणम्
मुद्गमाषोपमा रक्ता रक्तपित्तोद्भवा तु या ||८||
व्याधिरेषोत्तमा नाम शूकाजीर्णनिमित्तजा |
(सु. नि. अ. १४) |
शतपोनकलक्षणम्
छिद्रैरणुमुखैर्लिङ्गं चितं यस्य समन्ततः ||९||
वातशोणितजो व्याधिः स ज्ञेयः शतपोनकः |
(सु. नि. १४) ||११||
त्वक्पाकलक्षणम्
वातपित्तकृतो ज्ञेयस्त्वक्पाको ज्वरदाहकृत् ||१०||
(सु. नि. अ. १४) |
शोणितार्बुदलक्षणम्
कृष्णैः स्फोटैः सरक्ताभिः पिडकाभिर्निपीडितम् |
यस्य वास्तुरुजश्चोग्रा ज्ञेयं तच्छोणितार्बुदम् ||११||
(सु. नि. अ. १४) |
मांसार्बुदलक्षणम्
मांसदोषेण जानीयादर्बुदं मांससम्भवम् |१२|
(सु. नि. अ. १४) |
मांसपाकलक्षणम्
शीर्यन्ते यस्य मांसानि यस्य सर्वाश्च वेदनाः ||१२||
विद्यात्तं मांसपाकं तु सर्वदोषकृतं भिषक् |
(सु. नि. अ. १४) |
विद्रधिलक्षणम्
विद्रधिं सन्निपातेन यथोक्तमिति निर्दिशेत् ||१३||
(सु. नि. अ. १४) |
तिलकालकलक्षणम्
कृष्णानि चित्राण्यथवा शूकानि सविषाणि वा |
पातितानि पचन्त्याशु मेढ्रं निरवशेषतः ||१४||
कालानि भूत्वा मांसानि शीर्यन्ते यस्य देहिनः |
सन्निपातसमुत्थांस्तु तान् विद्यात्तिलकालकान् ||१५||
(सु. नि. अ. १४) |
शूकदोषाणां साध्यासाध्यविचारः
तत्र मांसार्बुदं यच्च मांसपाकश्च यः स्मृतः |
विद्रधिश्च न सिद्ध्यन्ति ये च स्युस्तिलकालकाः ||१६||
(सु. नि. अ. १४) |
पुष्पिका
इति श्रीमाधवकरविरचिते माधवनिदाने शूकदोषनिदानं समाप्तम् ||४८||